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4. द्वारिका कृष्ण स्वागत

 भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं, वे अपने आत्मलाभसे ही सदा-सर्वदा पूर्णकाम हैं, फिर भी जैसे लोग बड़े आदरसे भगवान् सूर्यको भी दीपदान करते हैं, वैसे ही अनेक प्रकारकी भेंटोंसे प्रजाने श्रीकृष्णका स्वागत किया ⁠।⁠।⁠४⁠।⁠। 

सबके मुखकमल प्रेमसे खिल उठे⁠। वे हर्षगद्‌गद वाणीसे सबके सुहृद् और संरक्षक भगवान् श्रीकृष्णकी ठीक वैसे ही स्तुति करने लगे, जैसे बालक अपने पितासे अपनी तोतली बोलीमें बातें करते हैं ⁠।⁠।⁠५⁠।⁠। 

‘स्वामिन्! हम आपके उन चरणकमलोंकोसदा-सर्वदा प्रणाम करते हैं जिनकी वन्दना ब्रह्मा, शंकर और इन्द्रतक करते हैं, जो इस संसारमें परम कल्याण चाहनेवालोंके लिये सर्वोत्तम आश्रय हैं, जिनकी शरण ले लेनेपर परम समर्थ काल भी एक बालतक बाँका नहीं कर सकता ⁠।⁠।⁠६⁠।⁠।

 विश्वभावन! आप ही हमारे माता, सुहृद्, स्वामी और पिता हैं; आप ही हमारे सद्‌गुरु और परम आराध्यदेव हैं⁠। आपके चरणोंकी सेवासे हम कृतार्थ हो रहे हैं⁠। आप ही हमारा कल्याण करें ⁠।⁠।⁠७⁠।⁠।

 अहा! हम आपको पाकर सनाथ हो गये; क्योंकि आपके सर्वसौन्दर्यसार अनुपम रूपका हम दर्शन करते रहते हैं⁠। कितना सुन्दर मुख है⁠। प्रेमपूर्ण मुसकानसे स्निग्ध चितवन! यह दर्शन तो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है ⁠।⁠।⁠८⁠।⁠।

कमलनयन श्रीकृष्ण! जब आप अपने बन्धु-बान्धवोंसे मिलनेके लिये हस्तिनापुर अथवा मथुरा (व्रजमण्डल) चले जाते हैं, तब आपके बिना हमारा एक-एक क्षण कोटि-कोटि वर्षोंके समान लम्बा हो जाता है⁠। आपके बिना हमारी दशा वैसी हो जाती है, जैसे सूर्यके बिना आँखोंकी ⁠।⁠।⁠९⁠।⁠। 

भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण प्रजाके मुखसे ऐसे वचन सुनते हुए और अपनी कृपामयी दृष्टिसे उनपर अनुग्रहकी वृष्टि करते हुए द्वारकामें प्रविष्ट हुए ⁠।⁠।⁠१०⁠।⁠।

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2. भीष्म

भीष्मजीने कहा— अब मृत्युके समय मैं अपनी यह बुद्धि, जो अनेक प्रकारके साधनोंका अनुष्ठान करनेसे अत्यन्त शुद्ध एवं कामनारहित हो गयी है, यदुवंशशिरोमणि अनन्त भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें समर्पित करता हूँ, जो सदा-सर्वदा अपने आनन्दमय स्वरूपमें स्थित रहते हुए ही कभी विहार करनेकी—लीला करनेकी इच्छासे प्रकृतिको स्वीकार कर लेते हैं, जिससे यह सृष्टिपरम्परा चलती है ⁠।⁠।⁠३२⁠।⁠।  जिनका शरीर त्रिभुवन-सुन्दर एवं श्याम तमालके समान साँवला है, जिसपर सूर्यरश्मियोंके समान श्रेष्ठ पीताम्बर लहराता रहता है और कमल-सदृश मुखपर घुँघराली अलकें लटकती रहती हैं उन अर्जुन-सखा श्रीकृष्णमें मेरी निष्कपट प्रीति हो ⁠। ⁠।⁠३३⁠।⁠।  मुझे युद्धके समयकी उनकी वह विलक्षण छबि याद आती है⁠। उनके मुखपर लहराते हुए घुँघराले बाल घोड़ोंकी टॉपकी धूलसे मटमैले हो गये थे और पसीनेकी छोटी-छोटी बूँदें शोभायमान हो रही थीं⁠। मैं अपने तीखे बाणोंसे उनकी त्वचाको बींध रहा था⁠। उन सुन्दर कवचमण्डित भगवान् श्रीकृष्णके प्रति मेरा शरीर, अन्तःकरण और आत्मा समर्पित हो जायँ ⁠ ।⁠।⁠३४⁠।⁠।  अपने मित्र अर्जुनकी बात सुनकर, जो तुरंत ही पाण्डव-सेना और कौरव...