सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

2. भीष्म

भीष्मजीने कहा—अब मृत्युके समय मैं अपनी यह बुद्धि, जो अनेक प्रकारके साधनोंका अनुष्ठान करनेसे अत्यन्त शुद्ध एवं कामनारहित हो गयी है, यदुवंशशिरोमणि अनन्त भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें समर्पित करता हूँ, जो सदा-सर्वदा अपने आनन्दमय स्वरूपमें स्थित रहते हुए ही कभी विहार करनेकी—लीला करनेकी इच्छासे प्रकृतिको स्वीकार कर लेते हैं, जिससे यह सृष्टिपरम्परा चलती है ⁠।⁠।⁠३२⁠।⁠। 

जिनका शरीर त्रिभुवन-सुन्दर एवं श्याम तमालके समान साँवला है, जिसपर सूर्यरश्मियोंके समान श्रेष्ठ पीताम्बर लहराता रहता है और कमल-सदृश मुखपर घुँघराली अलकें लटकती रहती हैं उन अर्जुन-सखा श्रीकृष्णमें मेरी निष्कपट प्रीति हो ⁠।⁠।⁠३३⁠।⁠। 

मुझे युद्धके समयकी उनकी वह विलक्षण छबि याद आती है⁠। उनके मुखपर लहराते हुए घुँघराले बाल घोड़ोंकी टॉपकी धूलसे मटमैले हो गये थे और पसीनेकी छोटी-छोटी बूँदें शोभायमान हो रही थीं⁠। मैं अपने तीखे बाणोंसे उनकी त्वचाको बींध रहा था⁠। उन सुन्दर कवचमण्डित भगवान् श्रीकृष्णके प्रति मेरा शरीर, अन्तःकरण और आत्मा समर्पित हो जायँ ⁠।⁠।⁠३४⁠।⁠।

 अपने मित्र अर्जुनकी बात सुनकर, जो तुरंत ही पाण्डव-सेना और कौरव-सेनाके बीचमें अपना रथ ले आये और वहाँ स्थित होकर जिन्होंने अपनी दृष्टिसे ही शत्रुपक्षके सैनिकोंकी आयु छीन ली, उन पार्थसखा भगवान् श्रीकृष्णमें मेरी परम प्रीति हो ⁠।⁠।⁠३५⁠।⁠।

 अर्जुनने जब दूरसे कौरवोंकी सेनाके मुखिया हमलोगोंको देखा तब पाप समझकर वह अपने स्वजनोंके वधसे विमुख हो गया⁠। उस समय जिन्होंने गीताके रूपमें आत्मविद्याका उपदेश करके उसके सामयिक अज्ञानका नाश कर दिया, उन परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें मेरी प्रीति बनी रहे ⁠।⁠।⁠३६⁠।⁠।

 मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं श्रीकृष्णको शस्त्र ग्रहण कराकर छोड़ूँगा; उसे सत्य एवं ऊँची करनेके लिये उन्होंने अपनी शस्त्र ग्रहण न करनेकी प्रतिज्ञा तोड़ दी⁠। उस समय वे रथसे नीचे कूद पड़े और सिंह जैसे हाथीको मारनेके लिये उसपर टूट पड़ता है, वैसे ही रथका पहिया लेकर मुझपर झपट पड़े⁠। उस समय वे इतने वेगसे दौड़े कि उनके कंधेका दुपट्टा गिर गया और पृथ्वी काँपने लगी ⁠।⁠।⁠३७⁠।⁠।

 मुझ आततायीने तीखे बाण मार-मारकर उनके शरीरका कवच तोड़ डाला था, जिससे सारा शरीर लहूलुहान हो रहाथा, अर्जुनके रोकनेपर भी वे बलपूर्वक मुझे मारनेके लिये मेरी ओर दौड़े आ थे⁠। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण, जो ऐसा करते हुए भी मेरे प्रति अनुग्रह और भक्तवत्सलतासे परिपूर्ण थे, मेरी एकमात्र गति हों—आश्रय हों ⁠।⁠।⁠३८⁠।⁠। 

अर्जुनके रथकी रक्षामें सावधान जिन श्रीकृष्णके बायें हाथमें घोड़ोंकी रास थी और दाहिने हाथमें चाबुक, इन दोनोंकी शोभासे उस समय जिनकी अपूर्व छवि बन गयी थी, तथा महाभारतयुद्धमें मरनेवाले वीर जिनकी इस छविका दर्शन करते रहनेके कारण सारूप्य मोक्षको प्राप्त हो गये, उन्हीं पार्थसारथि भगवान् श्रीकृष्णमें मुझ मरणासन्नकी परम प्रीति हो ⁠।⁠।⁠३९⁠।⁠। जिनकी लटकीली सुन्दर चाल, हाव-भावयुक्त चेष्टाएँ, मधुर मुसकान और प्रेमभरी चितवनसे अत्यन्त सम्मानित गोपियाँ रासलीलामें उनके अन्तर्धान हो जानेपर प्रेमोन्मादसे मतवाली होकर जिनकी लीलाओंका अनुकरण करके तन्मय हो गयी थीं, उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णमें मेरा परम प्रेम हो ⁠।⁠।⁠४०⁠।⁠। 

जिस समय युधिष्ठिरका राजसूययज्ञ हो रहा था, मुनियों और बड़े-बड़े राजाओंसे भरी हुई सभामें सबसे पहले सबकी ओरसे इन्हीं सबके दर्शनीय भगवान् श्रीकृष्णकी मेरी आँखोंके सामने पूजा हुई थी; वे ही सबके आत्मा प्रभु आज इस मृत्युके समय मेरे सामने खड़े हैं ⁠।⁠।⁠४१⁠।⁠। 

जैसे एक ही सूर्य अनेक आँखोंसे अनेक रूपोंमें दीखते हैं, वैसे ही अजन्मा भगवान् श्रीकृष्ण अपने ही द्वारा रचित अनेक शरीरधारियोंके हृदयमें अनेक रूपसे जान पड़ते हैं; वास्तवमें तो वे एक और सबके हृदयमें विराजमान हैं ही⁠। उन्हीं इन भगवान् श्रीकृष्णको मैं भेद-भ्रमसे रहित होकर प्राप्त हो गया हूँ ⁠।⁠।⁠४२⁠।⁠।

ये श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान् हैं⁠। ये सबके आदिकारण और परम पुरुष नारायण हैं⁠। अपनी मायासे लोगोंको मोहित करते हुए ये यदुवंशियोंमें छिपकर लीला कर रहे हैं ⁠।⁠।⁠१८⁠।⁠। इनका प्रभाव अत्यन्त गूढ़ एवं रहस्यमय है⁠। युधिष्ठिर! उसे भगवान् शंकर, देवर्षि नारद और स्वयं भगवान् कपिल ही जानते हैं ⁠।⁠।⁠१९⁠।⁠। जिन्हें तुम अपना ममेरा भाई, प्रिय मित्र और सबसे बड़ा हितू मानते हो तथा जिन्हें तुमने प्रेमवश अपना मन्त्री, दूतऔर सारथितक बनानेमें संकोच नहीं किया है, वे स्वयं परमात्मा हैं ⁠।⁠।⁠२०⁠।⁠। इन सर्वात्मा, समदर्शी, अद्वितीय, अहंकाररहित और निष्पाप परमात्मामें उन ऊँचे-नीचे कार्योंके कारण कभी किसी प्रकारकी विषमता नहीं होती ⁠।⁠।⁠२१⁠।⁠। युधिष्ठिर! इस प्रकार सर्वत्र सम होनेपर भी देखो तो सही, वे अपने अनन्यप्रेमी भक्तोंपर कितनी कृपा करते हैं⁠। यही कारण है कि ऐसे समयमें जबकि मैं अपने प्राणोंका त्याग करने जा रहा हूँ, इन भगवान् श्रीकृष्णने मुझे साक्षात् दर्शन दिया है ⁠।⁠।⁠२२⁠।⁠। भगवत्परायण योगी पुरुष भक्तिभावसे इनमें अपना मन लगाकर और वाणीसे इनके नामका कीर्तन करते हुए शरीरका त्याग करते हैं और कामनाओंसे तथा कर्मके बन्धनसे छूट जाते हैं ⁠।⁠।⁠२३⁠।⁠। वे ही देवदेव भगवान् अपने प्रसन्न हास्य और रक्तकमलके समान अरुण नेत्रोंसे उल्लसित मुखवाले चतुर्भुजरूपसे, जिसका और लोगोंको केवल ध्यानमें दर्शन होता है, तबतक यहीं स्थित रहकर प्रतीक्षा करें जबतक मैं इस शरीरका त्याग न कर दूँ ⁠।⁠।⁠२४⁠।⁠।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

4. द्वारिका कृष्ण स्वागत

 भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं, वे अपने आत्मलाभसे ही सदा-सर्वदा पूर्णकाम हैं, फिर भी जैसे लोग बड़े आदरसे भगवान् सूर्यको भी दीपदान करते हैं, वैसे ही अनेक प्रकारकी भेंटोंसे प्रजाने श्रीकृष्णका स्वागत किया ⁠।⁠।⁠४⁠।⁠।  सबके मुखकमल प्रेमसे खिल उठे⁠। वे हर्षगद्‌गद वाणीसे सबके सुहृद् और संरक्षक भगवान् श्रीकृष्णकी ठीक वैसे ही स्तुति करने लगे, जैसे बालक अपने पितासे अपनी तोतली बोलीमें बातें करते हैं ⁠।⁠।⁠५⁠।⁠।  ‘स्वामिन्! हम आपके उन चरणकमलोंकोसदा-सर्वदा प्रणाम करते हैं जिनकी वन्दना ब्रह्मा, शंकर और इन्द्रतक करते हैं, जो इस संसारमें परम कल्याण चाहनेवालोंके लिये सर्वोत्तम आश्रय हैं, जिनकी शरण ले लेनेपर परम समर्थ काल भी एक बालतक बाँका नहीं कर सकता ⁠।⁠।⁠६⁠।⁠।  विश्वभावन! आप ही हमारे माता, सुहृद्, स्वामी और पिता हैं; आप ही हमारे सद्‌गुरु और परम आराध्यदेव हैं⁠। आपके चरणोंकी सेवासे हम कृतार्थ हो रहे हैं⁠। आप ही हमारा कल्याण करें ⁠।⁠।⁠७⁠।⁠।  अहा! हम आपको पाकर सनाथ हो गये; क्योंकि आपके सर्वसौन्दर्यसार अनुपम रूपका हम दर्शन करते रहते हैं⁠। कितना सुन्दर मुख है⁠। प्रेमपूर्ण मुसकानसे स्...

1.कुंती, भरणी, प्रथम अध्याय

 ब्रह्मा, अग्नि,सूर्य,इंद्र आदि देवता तथा यह संपूर्ण जगत प्रतीत होने पर भी आप से पृथक नहीं है। इसलिए अनेक देवताओं का प्रतिपादन करने वाले वेद मंत्र उन देवताओं के नाम से पृथक पृथक आपकी ही विभिन्न मूर्तियों का वर्णन करते हैं। वस्तुतः आप अजन्मा है; उन मूर्तियों के रूप में भी आपका जन्म नहीं होता।10/87/15/2 This perceivable world is identified with the Supreme because the Supreme Brahman is the ultimate foundation of all existence, remaining unchanged as all created things are generated from it and at last dissolved into it, just as clay remains unchanged by the products made from it and again merged with it. Thus it is toward You alone that the Vedic sages direct all their thoughts, words and acts. After all, how can the footsteps of men fail to touch the earth on which they live? 1महायोगी देवदेव जगतपते,  2कृष्णाय वासुदेवाय, 3आत्माराम शांताय 

कुंती

 कुन्तीने कहा—आप समस्त जीवोंके बाहर और भीतर एकरस स्थित हैं, फिर भी इन्द्रियों और वृत्तियोंसे देखे नहीं जाते; क्योंकि आप प्रकृतिसे परे आदिपुरुष परमेश्वर हैं⁠। मैं आपको नमस्कार करती हूँ ⁠।⁠।⁠१८⁠।⁠।  इन्द्रियोंसे जो कुछ जाना जाता है, उसकी तहमें आप विद्यमान रहते हैं और अपनी ही मायाके परदेसे अपनेको ढके रहते हैं⁠। मैं अबोध नारी आप अविनाशी पुरुषोत्तमको भला कैसे जान सकती हूँ? जैसे मूढ़ लोग दूसरा भेष धारण किये हुए नटको प्रत्यक्ष देखकर भी नहीं पहचान सकते, वैसे ही आप दीखते हुए भी नहीं दीखते ⁠।⁠।⁠१९⁠।⁠।  आप शुद्ध हृदयवाले विचारशील जीवन्मुक्त परमहंसोंके हृदयमें अपनी प्रेममयीभक्तिका सृजन करनेके लिये अवतीर्ण हुए हैं⁠। फिर हम अल्पबुद्धि स्त्रियाँ आपको कैसे पहचान सकती हैं ⁠।⁠।⁠२०⁠।⁠।  आप श्रीकृष्ण, वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्द गोपके लाड़ले लाल गोविन्दको हमारा बारंबार प्रणाम है ⁠।⁠।⁠२१⁠।⁠।  जिनकी नाभिसे ब्रह्माका जन्मस्थान कमल प्रकट हुआ है, जो सुन्दर कमलोंकी माला धारण करते हैं, जिनके नेत्र कमलके समान विशाल और कोमल हैं, जिनके चरणकमलोंमें कमलका चिह्न है—श्रीकृष्ण! ऐसे आपको मेरा बार-बार...