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कुंती

 कुन्तीने कहा—आप समस्त जीवोंके बाहर और भीतर एकरस स्थित हैं, फिर भी इन्द्रियों और वृत्तियोंसे देखे नहीं जाते; क्योंकि आप प्रकृतिसे परे आदिपुरुष परमेश्वर हैं⁠। मैं आपको नमस्कार करती हूँ ⁠।⁠।⁠१८⁠।⁠। 

इन्द्रियोंसे जो कुछ जाना जाता है, उसकी तहमें आप विद्यमान रहते हैं और अपनी ही मायाके परदेसे अपनेको ढके रहते हैं⁠। मैं अबोध नारी आप अविनाशी पुरुषोत्तमको भला कैसे जान सकती हूँ? जैसे मूढ़ लोग दूसरा भेष धारण किये हुए नटको प्रत्यक्ष देखकर भी नहीं पहचान सकते, वैसे ही आप दीखते हुए भी नहीं दीखते ⁠।⁠।⁠१९⁠।⁠। 

आप शुद्ध हृदयवाले विचारशील जीवन्मुक्त परमहंसोंके हृदयमें अपनी प्रेममयीभक्तिका सृजन करनेके लिये अवतीर्ण हुए हैं⁠। फिर हम अल्पबुद्धि स्त्रियाँ आपको कैसे पहचान सकती हैं ⁠।⁠।⁠२०⁠।⁠। 

आप श्रीकृष्ण, वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्द गोपके लाड़ले लाल गोविन्दको हमारा बारंबार प्रणाम है ⁠।⁠।⁠२१⁠।⁠। 

जिनकी नाभिसे ब्रह्माका जन्मस्थान कमल प्रकट हुआ है, जो सुन्दर कमलोंकी माला धारण करते हैं, जिनके नेत्र कमलके समान विशाल और कोमल हैं, जिनके चरणकमलोंमें कमलका चिह्न है—श्रीकृष्ण! ऐसे आपको मेरा बार-बार नमस्कार है ⁠।⁠।⁠२२⁠।⁠। 

हृषीकेश! जैसे आपने दुष्ट कंसके द्वारा कैद की हुई और चिरकालसे शोकग्रस्त देवकीकी रक्षा की थी, वैसे ही पुत्रोंके साथ मेरी भी आपने बार-बार विपत्तियोंसे रक्षा की है⁠। आप ही हमारे स्वामी हैं⁠। आप सर्वशक्तिमान् हैं⁠। श्रीकृष्ण! कहाँतक गिनाऊँ—विषसे, लाक्षागृहकी भयानक आगसे, हिडिम्ब आदि राक्षसोंकी दृष्टिसे, दुष्टोंकी द्यूतसभासे, वनवासकी विपत्तियोंसे और अनेक बारके युद्धोंमें अनेक महारथियोंके शस्त्रास्त्रोंसे और अभी-अभी इस अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे भी आपने ही हमारी रक्षा की है ⁠।⁠।⁠२३-२४⁠।⁠। 

जगद्‌गुरो! हमारे जीवनमें सर्वदा पद-पदपर विपत्तियाँ आती रहें; क्योंकि विपत्तियोंमें ही निश्चितरूपसे आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके दर्शन हो जानेपर फिर जन्म-मृत्युके चक्करमें नहीं आना पड़ता ⁠।⁠।⁠२५⁠।⁠। 

ऊँचे कुलमें जन्म, ऐश्वर्य, विद्या और सम्पत्तिके कारण जिसका घमंड बढ़ रहा है, वह मनुष्य तो आपका नाम भी नहीं ले सकता; क्योंकि आप तो उन लोगोंको दर्शन देते हैं जो अकिंचन हैं ⁠।⁠।⁠२६⁠।⁠।

आप निर्धनोंके परम धन हैं⁠। मायाका प्रपंच आपका स्पर्श भी नहीं कर सकता⁠। आप अपने-आपमें ही विहार करनेवाले, परम शान्तस्वरूप हैं⁠। आप ही कैवल्य मोक्षके अधिपति हैं⁠। आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ ⁠।⁠।⁠२७⁠।⁠। 

मैं आपको अनादि, अनन्त, सर्वव्यापक, सबकेनियन्ता, कालरूप, परमेश्वर समझती हूँ⁠। संसारके समस्त पदार्थ और प्राणी आपसमें टकराकर विषमताके कारण परस्पर विरुद्ध हो रहे हैं, परंतु आप सबमें समानरूपसे विचर रहे हैं ⁠।⁠।⁠२८⁠।⁠। भगवन्! आप जब मनुष्योंकी-सी लीला करते हैं, तब आप क्या करना चाहते हैं—यह कोई नहीं जानता⁠। आपका कभी कोई न प्रिय है और न अप्रिय⁠। आपके सम्बन्धमें लोगोंकी बुद्धि ही विषम हुआ करती है ⁠।⁠।⁠२९⁠।⁠। 

आप विश्वके आत्मा हैं, विश्वरूप हैं⁠। न आप जन्म लेते हैं और न कर्म ही करते हैं⁠। फिर भी पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, जलचर आदिमें आप जन्म लेते हैं और उन योनियोंके अनुरूप दिव्य कर्म भी करते हैं⁠। यह आपकी लीला ही तो है ⁠।⁠।⁠३०⁠।⁠। 

जब बचपनमें आपने दूधकी मटकी फोड़कर यशोदा मैयाको खिझा दिया था और उन्होंने आपको बाँधनेके लिये हाथमें रस्सी ली थी, तब आपकी आँखोंमें आँसू छलक आये थे, काजल कपोलोंपर बह चला था, नेत्र चंचल हो रहे थे और भयकी भावनासे आपने अपने मुखको नीचेकी ओर झुका लिया था! आपकी उस दशाका—लीला-छबिका ध्यान करके मैं मोहित हो जाती हूँ⁠। भला, जिससे भय भी भय मानता है, उसकी यह दशा! ⁠।⁠।⁠३१⁠।⁠। 

आपने अजन्मा होकर भी जन्म क्यों लिया है, इसका कारण बतलाते हुए कोई-कोई महापुरुष यों कहते हैं कि जैसे मलयाचलकी कीर्तिका विस्तार करनेके लिये उसमें चन्दन प्रकट होता है, वैसे ही अपने प्रिय भक्त पुण्यश्लोक राजा यदुकी कीर्तिका विस्तार करनेके लिये ही आपने उनके वंशमें अवतार ग्रहण किया है ⁠।⁠।⁠३२⁠।⁠।

प्राप्त किया था, इसीलिये आप अजन्मा होते हुए भी जगत्‌के कल्याण और दैत्योंके नाशके लिये उनके पुत्र बने हैं ⁠।⁠।⁠३३⁠।⁠। कुछ और लोग यों कहते हैं कि यह पृथ्वी दैत्योंके अत्यन्त भारसे समुद्रमें डूबते हुए जहाजकी तरह डगमगा रही थी—पीड़ित हो रही थी, तब ब्रह्माकी प्रार्थनासे उसका भार उतारनेके लिये ही आप प्रकट हुए ⁠।⁠।⁠३४⁠।⁠। 

कोई महापुरुष यों कहते हैं की जो लोग इस संसारमें अज्ञान, कामना और कर्मोंके बन्धनमें जकड़े हुए पीड़ित हो रहे हैं उन लोगोंके लिये श्रवण और स्मरण करनेयोग्य लीला करनेके विचारसे ही आपने अवतार ग्रहण किया है ⁠।⁠।⁠३५⁠।⁠। 

भक्तजन बार-बार आपके चरित्रका श्रवण, गान, कीर्तन एवं स्मरण करके आनन्दित होते रहते हैं; वे ही अविलम्ब आपके उस चरणकमलका दर्शन कर पाते हैं; जो जन्म-मृत्युके प्रवाहको सदाके लिये रोक देता है ⁠।⁠।⁠३६⁠।⁠। 

भक्तवाञ्छाकल्पतरु प्रभो! क्या अब आप अपने आश्रित और सम्बन्धी हमलोगोंको छोड़कर जाना चाहते हैं⁠। आप जानते हैं कि आपके चरणकमलोंके अतिरिक्त हमें और किसीका सहारा नहीं है⁠। पृथ्वीके राजाओंके तो हम यों ही विरोधी हो गये हैं ⁠।⁠।⁠३७⁠।⁠। 

जैसे जीवके बिना इन्द्रियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं, वैसे ही आपके दर्शन बिना यदुवंशियोंके और हमारे पुत्र पाण्डवोंके नाम तथा रूपका अस्तित्व ही क्या रह जाता है ⁠।⁠।⁠३८⁠।⁠। गदाधर! आपके विलक्षण चरणचिह्नोंसे चिह्नित यह कुरुजांगल-देशकी भूमि आज जैसी शोभायमान हो रही है, वैसी आपके चले जानेके बाद न रहेगी ⁠।⁠।⁠३९⁠।⁠। 

आपकी दृष्टिके प्रभावसे ही यह देश पकी हुई फसल तथा लता-वृक्षोंसे समृद्धदूसरे लोग यों कहते हैं कि वसुदेव और देवकीने पूर्वजन्ममें (सुतपा और पृश्निके रूपमें) आपसे यही वरदानहो रहा है⁠। ये वन, पर्वत, नदी और समुद्र भी आपकी दृष्टिसे ही वृद्धिको प्राप्त हो रहे हैं ⁠।⁠।⁠४०⁠।⁠। 

आप विश्वके स्वामी हैं, विश्वके आत्मा हैं और विश्वरूप हैं⁠। यदुवंशियों और पाण्डवोंमें मेरी बड़ी ममता हो गयी है⁠। आप कृपा करके स्वजनोंके साथ जोड़े हुए इस स्नेहकी दृढ़ फाँसीको काट दीजिये ⁠।⁠।⁠४१⁠।⁠। 

श्रीकृष्ण! जैसे गंगाकी अखण्ड धारा समुद्रमें गिरती रहती है, वैसे ही मेरी बुद्धि किसी दूसरी ओर न जाकर आपसे ही निरन्तर प्रेम करती रहे ⁠।⁠।⁠४२⁠।⁠। 

श्रीकृष्ण! अर्जुनके प्यारे सखा यदुवंशशिरोमणे! आप पृथ्वीके भाररूप राजवेशधारी दैत्योंको जलानेके लिये अग्निस्वरूप हैं⁠। आपकी शक्ति अनन्त है⁠। गोविन्द! आपका यह अवतार गौ, ब्राह्मण और देवताओंका दुःख मिटानेके लिये ही है⁠। योगेश्वर! चराचरके गुरु भगवन्! मैं आपको नमस्कार करती हूँ ⁠।⁠।⁠४३⁠।⁠।

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